Thursday, December 16, 2010

क्रांति नायक बिरसा मुंडा

हनुमान सरावगी


     पलाश और महुआ से घिरी झारखण्ड  की उपत्यका हजारों वर्षों से अपने गर्भ में अनगिनत रत्नों को धारण किए है,और समय-समय पर ऐसे रत्न  मानव इस पावन धरती शरीर लेकर आए,जिन्होंने समाज को दिशा दी और  आशाएं जगाईं. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की रणभेरी  बजाकर शहीदों ने ब्रिटिश-शासन को इस बात  का अहसास करा दिया कि उनके राज्य में भी सूर्यास्त हो सकता है. इसके बाद कुछ वर्षों तक के लिए हमारी विरासत को अंग्रेजों ने खामोश सा कर दिया,खासकर छोटानागपुर के पठार पर एक सन्नाटे ने जन्म लिया. इस सन्नाटे को तोड़ने का श्रेय कान्तिकारी बिरसा मुंडा  को जाता है.
        बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवम्बर १८५७ में खूंटी के पास चलकद  गाँव में हुआ. इन्होने अंग्रेजी  साम्राज्यवाद की चूलें हिला दीं, जिससे अंग्रेजों ने भयभीत हो कर इनके आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया और इन्हें जेल में डालने का काम शुरू किया. यहाँ तक कि बिरसा को अहसास था कि बिना जीवन की कुर्बानी दिए, उनकी क्रांति सदियों तक समाज को जीवंत नहीं रख पाएगी. जेल में जब उनके जीवन का अंतिम क्षण उपस्थित था,उन्होंने अपने मित्र भरमी मुंडा से कहा," भरमी, मैं फिर आऊंगा. तुम लोग चिंता मत करो. मैंने तुम में  आत्मविश्वास भर दिया है. तुमको स्वावलंबन की राह बतायी है और तुम्हारे हाथों में हथियार दे दिए हैं...."
          लोक गीतों और जनश्रुतियों में वर्णित है कि जब भगवान् बिरसा मुंडा का अवतरण हुआ था तब सम्पूर्ण चलकद गाँव आलौकिक  प्रकाश से जगमगा उठा था.  वे बचपन से ही ईश्वरीय तेज से दीप्त थे.साथ ही,तीर संचालन में भी भगवान् बहुत निपुण थे.
        भगवान् बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के अहंकार और रंगभेद की नीति को चाईबासा के मिशन स्कूल में महसूसा था. किम्वदन्ती है कि एक बार बालक बिरसा को रास्ते में रोक कर एक अंग्रेज ने पूछा," ओ काला लड़का, यह रास्ता किडर को जाटा  हाय?"बिरसा ने उसे छूटते ही प्रत्युत्तर दिया," मुझसे इस छोटे से रास्ते के बारे में मत पूछो, मैं तुमको वयस्क होने पर सात समन्दर पार जाने का रास्ता बतला दूँगा." 
        बिरसा ने अंग्रेजी शासन और उसके शोषणकारी  कार्यकलापों को देखा और झेला था, साथ ही, उसे इस बात की भी चिंता थी कि उसके समाज के लोग अनेकानेक रूढ़ियों और कुरीतियों से भी घिरे हुए हैं. वे नई हवा में अपने को जीने योग्य बनाने के लिए शिक्षित नहीं हो रहे हैं और न ही नशा सेवन, रूढ़ियों, कुरीतियों आदि को तज रहे हैं. 
        भगवान् बिरसा मुंडा ने मात्र १५ वर्ष की आयु में अपना लक्ष्य निर्धारण कर लिया था.क्रांति की ज्वाला अपने ह्रदय में बैठाए  इस युवा  ने आनंद पाण्डेय से सनातन धर्म की जानकारी प्राप्त की. जनेऊ धारण किया.तुलसी की पूजा प्रारंभ की.अपने माथे पर चन्दन तिलक लगाया. लेकिन, इस ज्ञान के बाद बिरसा ने अपने समाज के अनुरूप अपनी धार्मिक मान्यताएं बनाईं, जिनका प्रथम उद्देश्य था समाज के प्रत्येक व्यक्ति में आत्मसम्मान,आत्मगौरव और आत्मविश्वास भरना.इनकी भूमिका ठीक उसी प्रकार  है जिस प्रकार महामना राजा राममोहनराय ने हिन्दू समाज में फैली रूढ़िवादिता को दूर किया था. 
         १८९४ से १८९५ में बिरसा मुंडा को लोगों ने धरती का पिता  (धरती अबा) स्वीकार कर लिया और लोग उसे श्रद्धा से भगवान् बिरसा मुंडा कह कर पुकारने लगे. सिंगबोंगा(सूर्य देवता) में अटूट विश्वास रखनेवाले भगवान् बिरसा ने धर्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में ब्यापक क्रांति एक साथ प्रारंभ की.उनकी राजनीतिक क्रांति (उलगुलान) का प्रभाव अंग्रेजी शासन पर गहरा पड़ा तो उनकी सामाजिक-धार्मिक-शैक्षणिक क्रांति का प्रभाव तो अनेक आनेवाली सदियों तक महसूस किया जाता  रहेगा. लेकिन, अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा की छवि को धूमिल करने के लिए अनेक झूठी कथाएँ गढ़ीं. उन्हें पागल तक कह  डाला. वे उन्हें भगवान् का अवतार मानने को तैयार नहीं थे. 
        १८९५ में भगवान् बिरसा मुंडा ने  ब्रितानिया  शासन को मानने से इनकार कर दिया और राजनीतिक क्रांति और संघर्ष का सिलसिला प्रारंभ किया. भूमि कर देने से उन्होंने मनाही कर दी.सबको  अपने तीर तलवार अस्त्र-शास्त्र धारण कर अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए तैयार किया.  झारखण्ड  क्षेत्र के सभी समुदायों का सहयोग उनको प्राप्त था,मुट्ठीभर अंग्रेजों और उनके समर्थकों को छोड़ कर. 
        १४ अगस्त, १८९५ को भगवान् बिरसा मुंडा ने अपनी गिरफ्तारी के प्रयासों को देखते हुए अपने समर्थकों से कहा," भय मत करो.मेरा शासन आरम्भ हो गया है. उनकी बंदूकें  काठ में बदल जाएंगी. गोलियां  पानी के बुलबुले बन जाएंगी. अंग्रेज मेरे राज्य को चुनौती  दे रहे हैं, उन्हें निर्भय हो कर सबक सिखाओ." 
        अंग्रेजों ने छल-नीति के द्वारा रात में सोए हुए बिरसा को गिरफ्तार किया. उनके साथ उनके अनेक सहयोगी गिरफ्तार किए गए.अंग्रेजों ने भगवान् बिरसा मुंडा को साधारण व्यक्ति सिद्ध करने के लिए खूंटी में खुला कोर्ट लगाया.  लेकिन  'धरती अबा' के दर्शन के लिए बड़ी भीड़ आ गयी और उनके पक्ष में नारे लगाने लगी, तब अंग्रेज खूंटी में कोर्ट नहीं लगा पाए.
           २२जनवरी, १८९५  को भगवान् बिरसा मुंडा को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी. उनको हजारीबाग के जेल में रखा गया. ३० नवंबर, १८९७ को भगवान् भगवान् बिरसा मुंडा जेल से वापस आए. 
        जेल से वापसी के बाद भगवान् बिरसा मुंडा ने व्यवस्थित रूप से उलगुलान (क्रांति) शुरू की. उन्होंने सोमा मुंडा को धार्मिक-सामाजिक क्रांति का प्रमुख और दोंका मुंडा को राजनीतिक क्रांति का प्रमुख बनाया.बिरसा ने साफ़ तौर पर घोषणा की कि हम अपनी धरती पर अंग्रेजों को शोषण-दमन  का राज चलाने नहीं  देंगे. यहाँ सिर्फ हमारे क्षेत्र   के लोगों का राज चलेगा, जिसमें बड़े-छोटे का भेदभाव नहीं होगा.कानून शोषण के लिए नहीं, बल्कि आमलोगों के विकास के लिए होगा. 
            इस घोषणा के बाद सरकारी कार्यालयों, पुलिस थानों और अंग्रेजी शासन के समर्थकों पर बिरसा पंथियों ने अपना सशस्त्र हमला तेज कर दिया.
            अंग्रेजी प्रशासन ने घबरा कर कुछ लोगों को ५०० रुपयों का ईनाम देने का वादा कर भगवान् बिरसा मुंडा को फरवरी माह १९०० में गिरफ्तार कर लिया.उनके साथ उनके अनेक सार्थक गिरफ्तार किए गए. बहुत ही विवादास्पद स्थिति में रांची जेल में ९ जून, १९०० को भगवान् बिरसा मुंडा ने इस दुनिया से महाप्रयाण किया.   

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