Thursday, December 16, 2010

हिंदी के अनन्य भक्त एवम कर्मयोगी सेठ गोविन्द दास


हनुमान सरावगी




      राष्ट्रभाषा हिंदी का आन्दोलन  हो या राजनीति में मूल्यों की बात, समाजोत्थान की बात हो या आर्थिक संरचना  बनाने की, स्वर्गीय सेठ गोविन्द दास जी ने अंपने लम्बे जीवन में सशक्त कर्मयोगी  की तरह काम किया. उनके जीवन का मूल मन्त्र था-कर्मण्येव अधिकारास्ते मा फलेषुकदाचन....सेठ जी ने जिस मोर्चे पर अपनी  शक्ति लगायी , वे उस मोरेचे पर सफल रहे . उनमें अदम्य साहस, दृढ विश्वास और  की अद्भुत क्षमता थी.
सेठजी और  पत्नी गोदावरी देवी 
        प्रभावकारी और अनुकरणीय व्यक्तित्व के स्वामी सेठगोविन्द दासजी का जन्म १८९६ में विजयदशमी के दिन हुआ था.इन के पिता का नाम दीवान बहादुर सेठ जीवनदास और माता का नाम पार्वतीबाई था.सेठ गोविन्ददास के पास जीवन की वह सारी  समृद्धि जन्म से ही उपलब्ध  थी,जिसकी कामना करना और प्राप्त करना किसी  के लिए भी दिवास्वप्न होता है. किन्तु सेठ जी ने सारे वैभव को अनपे जीवन से परे रख कर देश, हिंदी, संस्कृति-सभ्यता और धर्म के वैभव-विस्तार के लिए अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया.
        राष्ट्रभाषा हिंदी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए १९६८ में देशव्यापी  आन्दोलन चल रहा था. इस आन्दोलन में सेठ गोविन्द दास जी ने उल्लेखनीय भूमिका निभायी.  उन्होंने कांग्रेस पार्टी के समस्त अंतर्विरोधों को झेला.इसी क्रम में सेठ गोविन्द दास जी ने १९६८ में भारत भ्रमण किया. उस समय हिंदी आन्दोलन अपने चरम पर था.
         गोविन्द दास के दादा और पिता की इच्छा थी कि वे धर्मनिष्ठ, सामाजिक, राजभक्त एवम कुशल व्यापारी बनें, लेकिन वे जिस तपोभूमि  में रहे,उसका प्रभाव उनके जीवन पर पडा.उन्होंने स्वयं कहा  है,"व्यापार कुशलता एवम राजभक्ति से दूर ही रहा , सामाजिक कहाँ तक बना, कहा  नहीं जा सकता, राजद्रोही अवश्य बन गया!" सेठ गोविन्द दास  का मन और उनकी आत्मा विद्रोही थी-रचनात्मक विद्रोही. वे देश और हिंदी के सुरताल में विलायती संगीत का मिश्रण कर, उसे वर्णशंकर नहीं बनाना चाहते थे. वे किसी भी भाषा के विरोधी नहीं थे,  परन्तु हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का हकीकत में दर्जा दिलाना चाहते थे,  जब कि  सरकार की नीति थी कि यह सिर्फ कागज पर राष्ट्रभाषा का नाम पा ले.
        
      १९२० में उन्होंने महाकौशल क्षेत्र से कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में नागपुर कांग्रेस में सक्रीय भागीदारी निभाई. इसी कांग्रेस के बाद सेठ जी राष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के आकाश में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभरे. नागपुर कांग्रेस में ही बापू की अहिंसावादी नीति को कांग्रेस ने स्वतंत्रता आन्दोलन का जन-अस्त्र स्वीकार किया. सेठजी भी शाही जीवन त्याग कर,महात्मा गांधी के अनुयायी बन  गए. सादगीपूर्ण जीवन उन्होंने अपनाया. उनका अहिंसात्मक तेवर बहुत ही प्रभावी और नि:स्वार्थ था.
      १९२३ में केन्द्रीय असेम्बली के लिए चुनाव हुआ और सेठजी मध्य प्रान्त से निर्विरोध सदस्य चुने गए थे.वे केन्द्रीय एसेम्बली में तब सबसे कम आयु वाले सदस्य थे.१९२८ में सेठजी महाकौशल  प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए.
        १९३० में महात्मा गाँधी ने नमक कानून तोड़ने का निश्चय किया. नमक सत्याग्रह  में सेठजी ने उल्लेखनीय भागीदारी निभाई. रानी दुर्गावती स्मारक पर हुई आम सभा में सेठजी ने कहा," ब्रितानी सरकार अब ज्यादा दिनों तक नहीं टिकेगी,यह सरकार मानवाधिकार की बात करती है, और नमक जैसी सामग्री के निर्माण पर पाबंदी लगाती है....."इसी सभा में ब्रितानी  पुलिस ने उनको  गिरफ्तार किया और उनके जेल जाने का सिलसिला  शुरू हो गया. 
               महात्मा गाँधी ने गोलमेज कांफ्रेंस से लौटने के बाद सत्याग्रह आन्दोलन शुरू किया. उसी वर्ष जबलपुर में  सेठ जी ने तिलक भूमि तलैया पर आम सभा शुरू की. यह ऐतिहासिक आम सभा बिना रुके चार दिनों तक जारी रही. अंग्रेजों की हर तकरीर और हर साजिश का जवाब पेश किया,सेठ जी ने अपने ओजस्वी भाषण में.ब्रितानी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में दाल दिया. आजादी  के संग्राम के समय कुल मिलाकर आठ वर्ष सेठ जी ब्रितानी जेलों में रहे और जुल्म सहे . 
       त्याग और स्पष्टवादिता के प्रतीक सेठ जी को संपत्ति का तनिक भी मोह नहीं था. उन्हें चाहिए थी देश की आजादी. १९३२ में ही उन्होंने अपनी पैत्रिक संपत्ति में अपना अधिकार लेने से इनकार कर दिया. उन्होंने ऐसा करते  हुए जो पत्र अपने पिता  को लिखा था,उसका एक-एक शब्द देश प्रेम,त्याग और बलिदानी  विचार धारा से परिपूर्ण था. उन्हें अगर भामाशाह की तरह त्यागी,महाराणा की तरह प्रतापी,गंगा की गंभीरता और पवित्रता रखने वाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. 
        प्रथम विश्व-युद्ध के समापन काल में सेठ जी ने राष्ट्रीय हिंदी मंदिर  की स्थापना की.इसी संस्था ने उन्हें धीरे-धीरे हिंदी जगत का योद्ध बना दिया.
        सेठ गोविन्द दास जी कुल मिला कर ५२ वर्षों तक सांसद रहे. इस अवधि में उन्हें मिश्र, यूनान, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, इंग्लैण्ड , कनाडा, अमेरिका, हवाइद्वीप, जापान, चीन, वर्मा आदि देशों में जाने का अवसर मिला. विदेशों में उनको भारतीय साहित्य और संस्कृति का राजदूत  माना जाता था.
        सेठ गोविन्द दास १९५५ से १९६२ तक अखिल भारतीय मारवाड़ी  सम्मलेन के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे. उन्होंने इस अवधि में सम्मेलन की गतिविधियों में प्राण फूँका. समाज में नव जागरण का सन्देश दिया और उनमें संगठन की भावना प्रतिपादित की. सम्मलेन के माध्यम से उन्होंने समाज के लिए अनेक अनुकरणीय कार्य किए और अपनी पहचान बनाए रखने का आत्मविश्वास पैदा किया.
       १९६१ में सेठ गोविन्द दास जी को उनकी अप्रतिम देश सेवा के लिए राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने 'पद्म विभूषण' से अलंकृत किया.
       साहित्य के क्षेत्र में सेठ गोविन्द दास को उनकी विशिष्ट सेवा के सम्मान के लिए जबलपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टरेट की उपादी दी, हिंदी साहित्य सम्मलेन ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति'और राजस्थान साहित्य अकादमी ने उन्हें  'मनीषी' की उपाधि से सम्मानित किया.
        १९६२ में कांग्रेस सरकार ने अनिश्चित काल के लिए अंग्रेजी को सरकारी भाषा बनाए  रखने के लिए एक विधेयक  लाया. कांग्रेस का सदस्य होते हुए भी सेठ जी ने इस विधेयक के विरोध में वोट दिया. सरकार द्वारा हिंदी की उपेक्षा को देखते हुए उन्होंने १९६८ में 'पद्म भूषण' की उपाधि भी वापस कर दी.
       सेठ जी बचपन से ही कुशाग्र और साहित्यिक प्रवृत्ति के थे. मात्र १२ वर्ष की उम्र में उन्होंने 'चम्पावती' नामक एक लघु उपन्यास लिख डाला था.  उन्होंने अनेक नाटक, एकांकी, काव्य, उपन्यास, कहानी, यात्रा विवरण, संस्मरण, जीवनी और निबंध लिखे. वृहद् उपन्यास 'इंदुमती' और नाटक 'महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य' की बहुत सराहना हुई. तीन खण्डों में प्रकाशित आत्मकथा " आत्मनिरीक्षण  " सिर्फ आत्मकथा ही नहीं बल्कि  यह भारतीय जीवन दर्शन को प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है.
       भारतीय संस्कृति, साहित्य, राजनीति और समाज के कर्मनिष्ठ योद्धा सेठ गोविन्द दास जी का व्यक्तित्व अनुकरणीय है.उनके त्याग और दृढ निश्चय के साथ सत्य के मार्ग का व्यावहारिक अनुशरण युगों तक याद रखा जाएगा. सेठ गोविन्द  दास जी जैसे कर्मयोगी कभी-कभी ही पृथ्वी पर अवतरित होते हैं.आज भारत जिस विभ्रम और संकट की स्थिति से गुजर रहा है, ऎसी स्थिति में सेठ जी के विचारों के प्रचार-प्रचार से, उनके अनुकरण से देश को दिशाबोध प्राप्त हो सकता है. 
         
        सेठजी  के जीवन में ही भारत और भारतियों पर मार्क्सवाद का प्रभाव पड़ना परमभ हो गया था.विश्व स्तर पर मार्क्सवादी शक्तियां अपनी विचार्दारा को भारत पर भी लादना चाहती थीं.दूसरी और, यूरोपीय विचारधारा का देश में अन्धानुकरण भी फैशन के रूप में तेजी से सामने आया था.हिंदी इसी दो मुहे साप के बीच अपनी मौलिकता खोने लगी थी. सेठ जी भारतीय संकृति यानी भारतीय चिंतन और जीवन धारा पर हो रहे हमले और उसके प्रभाव को अपने अंत:करण में महसूसने लगे थे. उन्होंने चेताया था," हमें न तो साम्यवादी विचारधारा और न यूरोपीय विचारधारा की आवश्यकता है. हमारी विचारधारा तो हमारी माटी में उपजेगी.हमारे चिंतन से सामने आयेगी. हम जब अपने ह्रदय से गुलामी के दिनों में बनी तस्वीरों से अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए झूठे इतिहासों से मुक्त होंगे तभी हमारा भारतवर्ष समुन्नत होगा. अंग्रेजों का इतिहास भ्रम पैदा करने वाला था. उन्ग्रेजों ने यह जताने की झूठी कोशिस की कि भारतीय आर्य भारत के रहने वाले नहीं थे. इनका सम्बन्ध यूरोपीय या अन्य संस्कृतियों से सिर्फ इतना है कि भारत ने उन्हें प्रारंभिक ज्ञान दिया, भाषा दी. अक्षर दी और सामाजिक आदमी का जीवन दिया. कहने का तात्पर्य यह है कि सेठ जी सम्पूर्ण भारतीय थे और उनकी आत्मा में मा भारती का वास था.

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