Thursday, December 16, 2010

        
भारतीय चिन्तन के प्रकाश स्तंभ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 


हनुमान सरावगी

      















        भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म ९ सितम्बर १८५० में हुआ था और अल्प आयु  में ही उन्होंने लेखनी उठाई.उन्होंने अपने काल के अनुरूप लेखनी को दिशा दी.अंग्रेजों ने १८५७ में भारतीय स्वतंत्रता कि प्रथम क्रांति को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया था,जिसकी प्रतिध्वनियां  उनके पूरे लेखन में व्याप्त रही. अंग्रेजों की दमनकारी नीति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कल्पना मात्र बन कर रह गई थी. सारा समाज त्रस्त  था और व्यवसाई वर्ग पर ब्रिटिश सरकार के अंकुश कुछ अधिक ही थे. युग की इस परिस्थिति का बोध भारतेंदु को था, क्योंकि वे एक प्रतिष्ठित व्यवसाई अग्रवाल परिवार के थे. अत: उन्होंने परतंत्रता जनित  बन्धनों के बीच, सृजन  की अपनी धारदार शैली अपनाई. उन्होंने  अपने साहित्य में भारत और भारतीय भाषाओँ की दुर्दशा,अन्याय,सामाजिक विसंगतियों,भारतके गौरवमय इतिहास, आत्माभिमान आदि को इस प्रकार पिरोया कि उनका साहित्य अंग्रेजों के कानूनी दांव पेंच में न आए और उसे पढ़ कर सदियों से सोया भारत जाग उठे. साहित्य को समाज की मुख्यधारा में जोड़ कर भारतेंदु  ने सर्वप्रथम  युगप्रवर्तन का महत्वपूर्ण मार्ग प्रशस्त किया. 
        भारतेंदु ने मात्र ३४ वर्ष ४ महीने का जीवन पाया. लेकिन, इस छोटे-से जीवन-काल में उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में वैसे ही महत्त्व के कार्य किए, जैसे आदि शंकराचार्य ने धार्मिक और दार्शनिक और स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक क्षेत्र  में अपने-अपने अल्प जीवन काल में कार्य किए थे. भारतेंदु ने अपने जीवन का प्रत्येक पल और अपनी संपत्ति का प्रत्येक अंश राष्ट्र जागरण हेतु अर्पित कर दिया.
      भारतेंदु की दृष्टि बड़ी पैनी थी. वह देख रहे थे की हिंद और हिंदी पर घना कोहरा छाया हुआ है. बहुत कठिन था इस कोहरे को हटा  पाना और सदियों से सोए देशवासियों को जगा पाना,लेकिन उनका जन्म ही ऎसी चुनौतियों का सामना करने के लिए हुआ था. वे ऐसा कोई अवसर नहीं चूकते थे, जब ब्रिटिश शासन और समाज के सामने हिंदी और भारतीय भाषाओँ के उत्थान के सम्बन्ध में कुछ कहना या लिखना हो. ऐसे अवसरों  पर वे अकाट्य तर्कों के साथ अपनी बात प्रस्तुत करते थे. आज भी जब हिंदी साहित्याकाश में धुंध छाती है, तो उस धुंध को भेदती हुई भारतेंदु की वाणी गूंज उठती है."प्रचलित करहु अहान में निज भाषा करी जातां , राजकाज  दरबार में फेलावहु  यह वतन." हिंदी सम्पूर्ण समाज में व्यवहार की भाषा बने, यही उनकी उत्कट अभिलाषा थी. यह दुखद  स्थिति  में है कि हिंदी को  आज भी भारत में वह सम्मान  प्राप्त नही कर पायी है, जिसकी वह अधिकारिणी है.
         भारतेंदु एक भविष्यद्रष्टा  लेखक थे. हिंदी के लिए उन्होंने जो क्रांति शुरू की उनका समापन तभी हो पाएगा, जब हम भारतीय विदेशी का मोह त्याग कर, हिंदी एवं अन्य भारतीयों भाषा  के  साथ विश्वमंच पर साहित्य  के माध्यम से दस्तक देगें.विश्व की अनेक छोटी-छोटी भाषाएँ हैं,जिनको बोलने वालों की संख्या अत्यल्प है, उनकी कोई विशेष साहित्यक धरोहर नहीं है, फिर भी वे विश्व के साहित्य मंच पर प्रभावी  साहित्य प्रस्तुत कर रहे हैं और शिखर साहित्य सम्मान के हकदार बन रहे हैं. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ को विश्व के साहित्य में स्तरीय प्रभावी  योगदान करना होगा.  जब तक ऐसा नहीं हो पाता, भारत विश्व के वैचारिक पटल पर उपेक्षित रहेंगे.
          भारततेन्दु ने भारत के इतिहास, उनके वर्तमान और भविष्य को अपने साहित्य में रेखांकित किया. फलत: उनका साहित्य तीनों युगों का सेतु बना. कालक्रम ने यह सिद्ध कर दिया कि भारतेंदु का साहित्य  उस हिमालय की तरह है जिससे बहने वाली नदियाँ सृजन और आत्माभिमान का राग गाती है. उनका साहित्य समाज के सभी वर्गों के लिए है. उन्होंने अनेकानेक साहित्य विधाओं में लेखन इस लिए किया कि समाज के सभी वर्गों तक नवजागरण का सन्देश संप्रेषित किया जा सके. कविताएँ, भजन, कहानियां,  उपन्यास, नाटक, अनुवाद, प्रबंध,वर्णात्मक लेखन आदि विविध भाषाओँ में भारतेंदु ने सार्थक रचनाएँ कीं. 
        जब कवि हरिश्चंद्र की कलम भक्ति रस में डूबती है तो इनका ईश्वर  से सहज प्रेम प्रतिध्वनित  होता है-" जयति जयति श्री राधिका चरण युगल करि नेम, जाकी छटा प्रकाश ते पावत पामर प्रेम." लेकिन यह परमार्थी कविईश्वर  से प्रेम करता है, सम्पूर्ण समाज के उद्धार के लिए. उसका अपना कोई निज  स्वार्थ नहीं है, " सब विधि नासी  भारत प्रजा कहूँ ना रहियो अवलंब अब, जागो-जागो करुनायतन फेर जागिहौं नाथ कब...." जब कोई व्यक्ति  स्व. को भूल कर समाज में प्रवेश करता है तभी वह प्रभावकारी बातें कह सकता  है. भारतेंदु ने साहित्य के लिए अपने स्व को शून्य कर अपने साहित्य अनंत स्वरुप प्रदान किया. यही प्रक्रिया उनके प्रवाव को यथार्थ पटल पर संप्रेषित कर पायी है.
       इस युगद्रष्ट कवि   के ह्रदय में छटपटाहट   थी, भारत को मुक्त देखने की. वह आकुल-व्याकुल थे. भारत की दुर्दशा को देख कर और, ऐसे में वह भारत के गौरवशाली अतीत को देखते थे.वे इश्वर को धन्यवाद देते हुए कहते हैं कि उसने इस देश को सबसे पहले सभ्य  बनाया और ज्ञान का दान दिया.("सबसे पहले जेहि  सभ्य विधाता कीनो, सबसे पहले विद्या-फल जिन गहिलीनो.") , और द्रवित ह्रदय से वह कवि गा उठता है--"ताहि भारत में रह्यो, अब नहि सुख को लेस". और इस संवेदना के वेग से भारतेंदु के ह्रदय में एक क्रांति जन्म लेती है-सार्थक परवर्तन की क्रांति उफनती है. उनके अक्षर-अक्षर में जल की तरलता, अग्नि का ताप, वायु की शक्ति, बादलों का गर्जन-तर्जन, दुःख-दर्द का उच्छवास, दासता की पीड़ा, नवजागरण की आकुलता है. विकृतियों, विसंगतियों पर चोट और नव-रचना  के सन्देश हैं. घने अन्धकार के बीच भारतेंदु क्रांति की एक अमित चिंगारी  प्रज्ज्वलित कर देते हैं. बीसवीं सदी की  भारतीय चेतना इसी क्रांति से जन्म लेती है,जो अंत में भारतीय स्वतंत्रता की नींव बनती है. 
             सात जुलाई १८८३ को तत्कालीन शिक्षा योग को अपने साक्ष्य में बहर्तेंदु ने कहा है, मैंने हमेशा शिक्षा के विकास में दिलचस्पी ली है. मैं संस्कृत, हिंदी और उर्दू में कविताएँ लिखता हूँ और मैंने गद्य लेखन भी किया है. मैं चाहता हूँ कि मेरे देश के शिक्षा का स्टार उन्नत हो,हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ का विकास सुनिश्चित हो. मुझे आश्चर्य है कि भारत ही एक ऐसा  देश है, जहाँ न्यायलय की भाषा न तो शासक की मातृभाषा है और न प्रजा की. आप आम जनता के किसी भी वर्ग को नागरी और उर्दू लिखित नोटिस भेजें, ज्यादातर लोग नगरी नोटिस को आसानी से समझ लेंगें जबकि उर्दू की नोटिस को समझने के लिए किसी मुंशी, मुख्तार या वकील को ढूंढना होगा.
           उन्होंने हिंदी के उच्चारण-माधुरी के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए लिखा है," जो लोग अंग्रेज अधिकारीयों को उर्दू में पत्र लिखते हैं, वे ही अपने परिजनों को पत्र लिखते हुए हिंदी का प्रयोग करते हैं,फिर भी वे हिंदी को गंवारों की भाषा कहते हैं, यह दुर्भाग्य की बात है. यह कहना गलत है कि हिंदी बोलने वाले उर्दू के शब्दों के लिए शीन, मीम, काफ के उच्चरण करते हुए बेवजह अपनी जिह्वा अप्राकृतिकरूप से टेढ़ी करें.किसी अन्य भाषा से और शब्दों को लिए बिना हिंदी समर्थ भाषा बनने   की पूर्ण क्षमता से युक्त है."
       भारतेंदु  हरिश्चंद्र देश में सामाजिक एकता की राह  साहित्य से बनाना चाहते थे. इस क्रम में उन्होंने बंगला,उर्दू साहित्य अन्य भारतीय भाषाओँ की उत्कृष्ट रचनाओं का हिंदी में अनुवाद करने पर विशेष बल दिया. वे हिंदी को भारतीय साहित्यिक चेतना का समुद्र बनाना चाहते थे.उन्होंने अपने एक मित्र संतोष सिंह को लिखित एक पत्र में कहा है,"आप 'दीप-निर्वाह' बंगला उपन्यास का मानक अनुवाद करें.यह उपन्यास केवल उपन्यास ही नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध भारतवर्ष के सम्पूर्ण सामाजिक चिंतनशैली से है."वे अनुवाद-विधा के देश की साहित्यिक एकता हेतु व्यापक प्रयोग के समर्थक थे.       



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