हनुमान सरावगी |
महर्षि अरविन्द एक चैतन्य और शाश्वत विचार धारा के प्रवर्तक के रूप में हमारे बीच विद्यमान हैं. आवश्यकता है उस विचारधारा को अंगीकार करने की, किन्तु हम अपनी परिधि में अनेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं को सर्वदा अनदेखा कर जाते हैं, या समझ कर भी हम सहज मार्ग अपनाने का प्रयास करते हैं. हम कड़ा परिश्रम कर ऊंचाई की और बढ़ना नहीं चाहते हैं, जिसके परिणाम स्वरुप हम सत्य,प्रेम, निष्ठा या जीवन के उन मूल्यों को पा नहीं पाते जो हमारी परिधि में उपलब्ध हैं. हमें अपना जीवन सहज और कर्म प्रधान बनाने के लिए श्री अरविन्द के मार्ग का चयन करना चाहिए, क्योंकि तात्कालिक या तत्क्षण लाभ के प्रति मोह विश्व में विभेद और घृणा पैदा कर रहा है. यह तथ्य महर्षि अरविन्द ने कई बार अपने व्याख्यानों में रखा है और वह राह दिखलाने की कोशिश की है, जो सहज तो नहीं है किन्तु जब मंजिल मिल जाती है, तब शाश्वत आनंद का सागर ह्रदय में लहराता है. वह सुख की पूंजी नश्वर धन से अधिक आत्मतुष्टि देती है.
हम कह सकते हैं कि महर्षि अरविन्द की बतायी राह वह राह है, जो आदमी के जीवन को सार्थक बनाती है और उसे सद्कर्म का सन्देश देती है.
महर्षि ने कर्म के दोनों रूपों को भी स्पष्ट किया है. सद्कर्म और दुष्कर्म को परिभाषितकर बहु सारी द्विविधाओं से समाज को मुक्ति दिलाने का मार्ग बतलाया है.सच बोलना शाश्वत धर्म है. लेकिन सच बोलने की भी प्रक्रिया है. कौन सा सच किसके सामने कब बोलना चाहिए,यह हम तभी अनुभव कर सकते हैं, जब हम वेश्लेषण करने की क्षमता रखते हैं. गलत स्थान या गलत समय पर बोला गया सत्य भी दुष्कर्म या पाप का करण बन सकता है. इसी प्रकार झूठ बोलना सदा पाप होता है,लेकिन यह भी आवश्यकता पड़ने पर सद्कर्म या पून्य कर्म को प्रेरित कर सकता है.गीता में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से अश्वत्थामा के मारे जाने की झूठी जानकारी द्रोणाचार्य को दिलवाकर,सत्य और धर्म की विजय को सुनिश्चित किया.महर्षि अरविन्द के दर्शन का अध्ययन और ज्ञान प्राप्त कर सद्कर्म की पहचान की जा सकती है.
महर्षि अरविन्द व्यक्ति को व्यावहारिक संवेदनशीलता से पुष्ट करना चाहते थे. एक बार महर्षि ने प्रश्न किया था," आदमी इतना कुछ पा चुका है, और उसे क्या पाना है? "उन्होंने स्वयं उत्तर दिया," प्रेम." वह जानते थे कि लोग प्रेम का स्वरुप स्वार्थ में निहित कर किसी से प्रेम जताते हैं. यह प्रेम, प्रेम नहीं होता है.स्वार्थ-सिद्धि का कर्म बन जाता है. महर्षि ने प्रेम की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है,"प्रेम नैसर्गिक होता है और प्रेम से समाज में प्रेम बढ़ता है. प्रेम सदा सर्वहित में होता है. वह मनुष्यता के गुणों और विशिष्टताओं को स्थापित करता है.
श्री अरविन्द ने अपनी एक कविता में कहा है," शैशव कल में शिशु ईश्वर के तुल्य होता है. "एक बालक का माता से प्रेम, निश्च्छल प्रेम है. उसकी चंचलता में भी आनंद की सुगंध होती है. उसकी हठ लीला भी आनंद प्रदान करती है. वास्तिविकता में बालक मन,ह्रदय, प्राण और आत्मा से नि:स्वार्थ होता है. लेकिन धीरे-धीरे जब वही बालक बड़ा होता है, उसके हर कदम स्वार्थ की ढलान पर चल पड़ते हैं, और अन्ततोगत्वा ईश्वर या ईश्वरीय गुणों या प्राकृतिक गुणों से दूर हट कर अपनी मुख्य धारा से कट जाता है. महर्षि का सन्देश है कि हर आदमी अपनी प्रकृति को अपनाए, और छद्म सुख की और न बढे. छद्म सुख असंतोष को बढ़ता है. और आदमी अनेकानेक जटिलताओं और दुखों से घिर कर अपना जीवन स्वयं कष्टमय बना लेता है.
महर्षि ने शक्ति और सत्ता की व्याखा करते हुए कहा है कि जब कोई सत्ता युद्ध में जीत जाती है,तो वह उन सभी मानवीय पक्षों पर विचार नहीं करती है जहाँ वह हार चुकी होती है और अपनी कमजोरियों की उपेक्षा कर जाती हैं.सत्ता या शक्ति दोनों के दो भेद हैं-शाश्वत सत्ता और भौतिक सत्ता एवं शाश्वत शक्ति और भौतिक शक्ति. सत्य,प्रेम,स्नेह, सद्व्यवहार की सत्ता शाश्वत होती है और स्वार्थ, हिंसा, लिप्सा, लाभ की सत्ता सदैव भौतिक होती है, जो असंतोष एवम दुःख को जन्म देती है.
महर्षि ने कहा है कि मन का जानवर धर्म की लगाम से नियंत्रित हो कर समाज में आगे बढ़ता है तो वह कृष रूप हो जाटा है. सर्वभौमिक हो जाता है.
महर्षि अरविन्द का सन्देश है कि लोग अपनी मंजिल और उस तक पहुँचने की राह सत्य, धर्म, मानवीय आचरण और विवेक से निश्चित करे और हर कदम पर अपनी आत्मा को जागृत रखे. जिसकी आत्मा अलौकिक नहीं होगी, उसमें सही और गलत का निर्धारण करने की क्षमता नहीं हो सकती. आत्मा उसी की आलोकित होती है स्वार्थ से ऊपर उठ कर सद्कर्म करता है. मानव अपना प्रयास अपने तक संकुचित नहीं रखे. अपने समस्त प्रयास भूतकाल के अनुभव, वर्तमान की आवश्यकता और भविष्य में उनके प्रवाव को देख कर करें, जिससे कि प्रयास सदैव सार्वभौम हो.मानव का आह्वान करते हुए महर्षि अरविन्द ने आनद से आनान्दित होने के लिए कहा है, जो स्थाई उपलब्धि है और इससे नैसर्गिक सुखों की अनुभूति होती है. महर्षि ने मानव-मानव में बढ़ते भेद और दूरियों को परखा और कहा है कि मानव का जन्म निश्चित कर्म के लिए होता है,अपने कर्म के माध्यम से अपना व्यक्तित्त्व बनाने के लिए नहीं. व्यक्तित्व निर्माण की स्वार्थपरक प्रक्रिया ने ही मानव मानव के बीच विभेद पैदा किया है.
महर्षि के विचारों से स्पष्ट है कि मानव का हर प्रयास "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" पर आधारित होना चाहिए. हर प्रयास समाज के हित में होना चाहिए.नि:स्वार्थ मानव के समाज में ही शाश्वत आन्नद का प्रवाह संभव है. ऐसे ही समाज में कृष्ण की बांसुरी की सुरीली तान सर्वदा अवगूँजित हो सकती है.
महर्षि ने कहा है, " छोटी राह से प्राप्त भौतिक सम्पदा सुख से अधिक दुःख देती है,जबकि शाश्वत सुख के लिए कठिन और लम्बी राह पर चलना होता है.जो सच्चा सुख चाहते हैं उनको उसी कठिन और लम्बी राह पर चलने की अनिवार्यता है.महर्षि अरविन्द का दीव्य सन्देश है कि सद्कर्म की राह पर चलो और एक दिन कृष्ण के विराट स्वरुप में समाहित हो जाओ,अर्थात जिसकी ऊर्जा से यह शरीर कार्य करता है,मृत्यु के बाद उसी ऊर्जा के स्वामी से जा मिलता है. यह मिलन मात्र कर्म मार्ग से ही संभव है."
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