Thursday, December 16, 2010

युगद्रष्टा महर्षि अरविन्द





हनुमान सरावगी
                                                                            


         महर्षि अरविन्द एक चैतन्य और शाश्वत विचार धारा के प्रवर्तक के रूप में हमारे बीच विद्यमान हैं. आवश्यकता है उस विचारधारा को अंगीकार करने की, किन्तु हम अपनी परिधि  में अनेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं को सर्वदा अनदेखा कर जाते हैं, या समझ कर भी हम सहज मार्ग अपनाने का प्रयास करते हैं. हम कड़ा परिश्रम कर ऊंचाई की और बढ़ना नहीं चाहते हैं, जिसके परिणाम  स्वरुप हम सत्य,प्रेम, निष्ठा या जीवन के उन मूल्यों को पा नहीं पाते जो हमारी परिधि में उपलब्ध हैं. हमें अपना जीवन सहज और कर्म प्रधान बनाने के लिए श्री अरविन्द के मार्ग का चयन करना चाहिए, क्योंकि तात्कालिक या तत्क्षण लाभ के प्रति मोह विश्व में विभेद और घृणा पैदा कर रहा है. यह तथ्य  महर्षि अरविन्द ने कई बार अपने व्याख्यानों में रखा है और वह राह दिखलाने की कोशिश की है, जो सहज तो नहीं है किन्तु जब मंजिल मिल जाती है, तब शाश्वत आनंद का सागर ह्रदय में लहराता है. वह सुख की पूंजी नश्वर धन से अधिक आत्मतुष्टि देती है. 
        हम कह सकते हैं कि महर्षि अरविन्द की बतायी राह वह राह है, जो आदमी के जीवन को सार्थक बनाती है और उसे   सद्कर्म का सन्देश देती है. 
        महर्षि ने कर्म के दोनों रूपों को भी स्पष्ट किया है. सद्कर्म और दुष्कर्म को परिभाषितकर बहु सारी द्विविधाओं से समाज  को मुक्ति दिलाने का मार्ग बतलाया है.सच बोलना शाश्वत धर्म है. लेकिन सच बोलने की भी प्रक्रिया है. कौन सा सच किसके सामने कब बोलना चाहिए,यह हम तभी अनुभव कर सकते हैं, जब हम वेश्लेषण करने की क्षमता रखते हैं. गलत स्थान या गलत समय पर बोला गया सत्य भी दुष्कर्म या पाप का करण बन सकता है. इसी प्रकार झूठ बोलना सदा पाप होता है,लेकिन यह भी आवश्यकता पड़ने पर सद्कर्म या पून्य  कर्म को प्रेरित कर सकता है.गीता में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से अश्वत्थामा के मारे  जाने की झूठी जानकारी द्रोणाचार्य को दिलवाकर,सत्य और धर्म की विजय को सुनिश्चित किया.महर्षि अरविन्द के दर्शन का अध्ययन और ज्ञान प्राप्त कर सद्कर्म की पहचान की जा सकती है.
         महर्षि अरविन्द व्यक्ति को व्यावहारिक संवेदनशीलता से पुष्ट करना चाहते थे. एक बार महर्षि ने प्रश्न किया था," आदमी इतना कुछ पा चुका है, और उसे क्या पाना है? "उन्होंने स्वयं उत्तर दिया," प्रेम." वह जानते थे कि लोग प्रेम का स्वरुप स्वार्थ में निहित कर किसी से प्रेम जताते हैं. यह प्रेम, प्रेम नहीं होता है.स्वार्थ-सिद्धि का कर्म  बन जाता है. महर्षि ने प्रेम की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है,"प्रेम नैसर्गिक होता है और प्रेम से समाज में प्रेम बढ़ता है. प्रेम सदा सर्वहित में होता है. वह मनुष्यता के गुणों और विशिष्टताओं  को स्थापित करता है.
              श्री अरविन्द ने अपनी एक कविता में कहा है," शैशव कल में शिशु ईश्वर के तुल्य होता है. "एक बालक का माता से प्रेम, निश्च्छल प्रेम है. उसकी चंचलता में भी आनंद की सुगंध होती है. उसकी हठ लीला भी आनंद प्रदान करती है. वास्तिविकता में बालक मन,ह्रदय, प्राण और आत्मा से नि:स्वार्थ होता है. लेकिन धीरे-धीरे जब वही बालक बड़ा होता है, उसके हर कदम स्वार्थ की ढलान पर चल पड़ते हैं, और अन्ततोगत्वा ईश्वर या ईश्वरीय गुणों या प्राकृतिक गुणों से दूर हट कर अपनी मुख्य धारा से कट जाता है. महर्षि का सन्देश है कि हर आदमी अपनी प्रकृति को अपनाए, और छद्म सुख की और न बढे. छद्म सुख असंतोष को बढ़ता है. और आदमी अनेकानेक जटिलताओं और दुखों से घिर कर अपना जीवन स्वयं कष्टमय बना लेता है.

            महर्षि ने शक्ति और सत्ता की व्याखा करते हुए कहा है कि जब कोई सत्ता युद्ध में जीत जाती है,तो वह उन सभी मानवीय पक्षों पर विचार नहीं करती है जहाँ वह हार चुकी होती है और अपनी कमजोरियों की उपेक्षा कर जाती हैं.सत्ता या शक्ति दोनों के दो भेद हैं-शाश्वत सत्ता और भौतिक सत्ता एवं  शाश्वत शक्ति और भौतिक शक्ति. सत्य,प्रेम,स्नेह, सद्व्यवहार की सत्ता शाश्वत होती है और स्वार्थ, हिंसा, लिप्सा, लाभ की सत्ता सदैव भौतिक होती है, जो असंतोष एवम दुःख को जन्म देती है.
     महर्षि ने कहा है कि मन का जानवर धर्म की लगाम से नियंत्रित हो कर समाज में आगे बढ़ता है तो वह कृष रूप हो जाटा है. सर्वभौमिक हो जाता है.   
          महर्षि अरविन्द का सन्देश है कि लोग अपनी मंजिल और उस तक पहुँचने की राह सत्य, धर्म, मानवीय आचरण और विवेक से निश्चित करे और हर कदम पर अपनी आत्मा को जागृत रखे. जिसकी आत्मा अलौकिक नहीं होगी, उसमें सही और गलत का निर्धारण करने की क्षमता नहीं हो सकती. आत्मा उसी की आलोकित होती  है स्वार्थ से ऊपर उठ कर सद्कर्म करता है.  मानव अपना प्रयास अपने तक संकुचित नहीं रखे. अपने समस्त प्रयास भूतकाल के अनुभव, वर्तमान की आवश्यकता और भविष्य में उनके प्रवाव  को देख कर करें, जिससे कि प्रयास सदैव सार्वभौम हो.मानव का आह्वान करते हुए महर्षि अरविन्द ने आनद से आनान्दित होने के लिए कहा है, जो स्थाई उपलब्धि है और इससे नैसर्गिक सुखों की अनुभूति होती है. महर्षि ने मानव-मानव में बढ़ते भेद और दूरियों को परखा और कहा है कि मानव का जन्म निश्चित कर्म के लिए होता है,अपने कर्म के माध्यम से अपना व्यक्तित्त्व बनाने के लिए नहीं. व्यक्तित्व निर्माण की स्वार्थपरक  प्रक्रिया ने ही मानव मानव के बीच विभेद पैदा किया है. 
         महर्षि के विचारों से स्पष्ट है कि मानव का हर प्रयास "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय"  पर आधारित होना चाहिए. हर प्रयास समाज के हित में होना चाहिए.नि:स्वार्थ मानव के समाज में ही शाश्वत आन्नद का प्रवाह संभव है. ऐसे ही समाज में कृष्ण की बांसुरी की सुरीली तान सर्वदा अवगूँजित  हो सकती है. 
          महर्षि ने कहा है, " छोटी राह से प्राप्त भौतिक सम्पदा सुख से अधिक दुःख देती है,जबकि शाश्वत सुख के लिए कठिन और लम्बी राह पर चलना होता है.जो सच्चा सुख चाहते हैं उनको उसी कठिन और लम्बी राह पर चलने की अनिवार्यता है.महर्षि अरविन्द का दीव्य  सन्देश है कि सद्कर्म की राह पर चलो और एक दिन कृष्ण के विराट स्वरुप में समाहित हो जाओ,अर्थात जिसकी ऊर्जा से यह शरीर कार्य करता है,मृत्यु के बाद उसी ऊर्जा के स्वामी से जा मिलता है. यह मिलन मात्र कर्म मार्ग से ही संभव है."         
        
भारतीय चिन्तन के प्रकाश स्तंभ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 


हनुमान सरावगी

      















        भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म ९ सितम्बर १८५० में हुआ था और अल्प आयु  में ही उन्होंने लेखनी उठाई.उन्होंने अपने काल के अनुरूप लेखनी को दिशा दी.अंग्रेजों ने १८५७ में भारतीय स्वतंत्रता कि प्रथम क्रांति को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया था,जिसकी प्रतिध्वनियां  उनके पूरे लेखन में व्याप्त रही. अंग्रेजों की दमनकारी नीति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कल्पना मात्र बन कर रह गई थी. सारा समाज त्रस्त  था और व्यवसाई वर्ग पर ब्रिटिश सरकार के अंकुश कुछ अधिक ही थे. युग की इस परिस्थिति का बोध भारतेंदु को था, क्योंकि वे एक प्रतिष्ठित व्यवसाई अग्रवाल परिवार के थे. अत: उन्होंने परतंत्रता जनित  बन्धनों के बीच, सृजन  की अपनी धारदार शैली अपनाई. उन्होंने  अपने साहित्य में भारत और भारतीय भाषाओँ की दुर्दशा,अन्याय,सामाजिक विसंगतियों,भारतके गौरवमय इतिहास, आत्माभिमान आदि को इस प्रकार पिरोया कि उनका साहित्य अंग्रेजों के कानूनी दांव पेंच में न आए और उसे पढ़ कर सदियों से सोया भारत जाग उठे. साहित्य को समाज की मुख्यधारा में जोड़ कर भारतेंदु  ने सर्वप्रथम  युगप्रवर्तन का महत्वपूर्ण मार्ग प्रशस्त किया. 
        भारतेंदु ने मात्र ३४ वर्ष ४ महीने का जीवन पाया. लेकिन, इस छोटे-से जीवन-काल में उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में वैसे ही महत्त्व के कार्य किए, जैसे आदि शंकराचार्य ने धार्मिक और दार्शनिक और स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक क्षेत्र  में अपने-अपने अल्प जीवन काल में कार्य किए थे. भारतेंदु ने अपने जीवन का प्रत्येक पल और अपनी संपत्ति का प्रत्येक अंश राष्ट्र जागरण हेतु अर्पित कर दिया.
      भारतेंदु की दृष्टि बड़ी पैनी थी. वह देख रहे थे की हिंद और हिंदी पर घना कोहरा छाया हुआ है. बहुत कठिन था इस कोहरे को हटा  पाना और सदियों से सोए देशवासियों को जगा पाना,लेकिन उनका जन्म ही ऎसी चुनौतियों का सामना करने के लिए हुआ था. वे ऐसा कोई अवसर नहीं चूकते थे, जब ब्रिटिश शासन और समाज के सामने हिंदी और भारतीय भाषाओँ के उत्थान के सम्बन्ध में कुछ कहना या लिखना हो. ऐसे अवसरों  पर वे अकाट्य तर्कों के साथ अपनी बात प्रस्तुत करते थे. आज भी जब हिंदी साहित्याकाश में धुंध छाती है, तो उस धुंध को भेदती हुई भारतेंदु की वाणी गूंज उठती है."प्रचलित करहु अहान में निज भाषा करी जातां , राजकाज  दरबार में फेलावहु  यह वतन." हिंदी सम्पूर्ण समाज में व्यवहार की भाषा बने, यही उनकी उत्कट अभिलाषा थी. यह दुखद  स्थिति  में है कि हिंदी को  आज भी भारत में वह सम्मान  प्राप्त नही कर पायी है, जिसकी वह अधिकारिणी है.
         भारतेंदु एक भविष्यद्रष्टा  लेखक थे. हिंदी के लिए उन्होंने जो क्रांति शुरू की उनका समापन तभी हो पाएगा, जब हम भारतीय विदेशी का मोह त्याग कर, हिंदी एवं अन्य भारतीयों भाषा  के  साथ विश्वमंच पर साहित्य  के माध्यम से दस्तक देगें.विश्व की अनेक छोटी-छोटी भाषाएँ हैं,जिनको बोलने वालों की संख्या अत्यल्प है, उनकी कोई विशेष साहित्यक धरोहर नहीं है, फिर भी वे विश्व के साहित्य मंच पर प्रभावी  साहित्य प्रस्तुत कर रहे हैं और शिखर साहित्य सम्मान के हकदार बन रहे हैं. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ को विश्व के साहित्य में स्तरीय प्रभावी  योगदान करना होगा.  जब तक ऐसा नहीं हो पाता, भारत विश्व के वैचारिक पटल पर उपेक्षित रहेंगे.
          भारततेन्दु ने भारत के इतिहास, उनके वर्तमान और भविष्य को अपने साहित्य में रेखांकित किया. फलत: उनका साहित्य तीनों युगों का सेतु बना. कालक्रम ने यह सिद्ध कर दिया कि भारतेंदु का साहित्य  उस हिमालय की तरह है जिससे बहने वाली नदियाँ सृजन और आत्माभिमान का राग गाती है. उनका साहित्य समाज के सभी वर्गों के लिए है. उन्होंने अनेकानेक साहित्य विधाओं में लेखन इस लिए किया कि समाज के सभी वर्गों तक नवजागरण का सन्देश संप्रेषित किया जा सके. कविताएँ, भजन, कहानियां,  उपन्यास, नाटक, अनुवाद, प्रबंध,वर्णात्मक लेखन आदि विविध भाषाओँ में भारतेंदु ने सार्थक रचनाएँ कीं. 
        जब कवि हरिश्चंद्र की कलम भक्ति रस में डूबती है तो इनका ईश्वर  से सहज प्रेम प्रतिध्वनित  होता है-" जयति जयति श्री राधिका चरण युगल करि नेम, जाकी छटा प्रकाश ते पावत पामर प्रेम." लेकिन यह परमार्थी कविईश्वर  से प्रेम करता है, सम्पूर्ण समाज के उद्धार के लिए. उसका अपना कोई निज  स्वार्थ नहीं है, " सब विधि नासी  भारत प्रजा कहूँ ना रहियो अवलंब अब, जागो-जागो करुनायतन फेर जागिहौं नाथ कब...." जब कोई व्यक्ति  स्व. को भूल कर समाज में प्रवेश करता है तभी वह प्रभावकारी बातें कह सकता  है. भारतेंदु ने साहित्य के लिए अपने स्व को शून्य कर अपने साहित्य अनंत स्वरुप प्रदान किया. यही प्रक्रिया उनके प्रवाव को यथार्थ पटल पर संप्रेषित कर पायी है.
       इस युगद्रष्ट कवि   के ह्रदय में छटपटाहट   थी, भारत को मुक्त देखने की. वह आकुल-व्याकुल थे. भारत की दुर्दशा को देख कर और, ऐसे में वह भारत के गौरवशाली अतीत को देखते थे.वे इश्वर को धन्यवाद देते हुए कहते हैं कि उसने इस देश को सबसे पहले सभ्य  बनाया और ज्ञान का दान दिया.("सबसे पहले जेहि  सभ्य विधाता कीनो, सबसे पहले विद्या-फल जिन गहिलीनो.") , और द्रवित ह्रदय से वह कवि गा उठता है--"ताहि भारत में रह्यो, अब नहि सुख को लेस". और इस संवेदना के वेग से भारतेंदु के ह्रदय में एक क्रांति जन्म लेती है-सार्थक परवर्तन की क्रांति उफनती है. उनके अक्षर-अक्षर में जल की तरलता, अग्नि का ताप, वायु की शक्ति, बादलों का गर्जन-तर्जन, दुःख-दर्द का उच्छवास, दासता की पीड़ा, नवजागरण की आकुलता है. विकृतियों, विसंगतियों पर चोट और नव-रचना  के सन्देश हैं. घने अन्धकार के बीच भारतेंदु क्रांति की एक अमित चिंगारी  प्रज्ज्वलित कर देते हैं. बीसवीं सदी की  भारतीय चेतना इसी क्रांति से जन्म लेती है,जो अंत में भारतीय स्वतंत्रता की नींव बनती है. 
             सात जुलाई १८८३ को तत्कालीन शिक्षा योग को अपने साक्ष्य में बहर्तेंदु ने कहा है, मैंने हमेशा शिक्षा के विकास में दिलचस्पी ली है. मैं संस्कृत, हिंदी और उर्दू में कविताएँ लिखता हूँ और मैंने गद्य लेखन भी किया है. मैं चाहता हूँ कि मेरे देश के शिक्षा का स्टार उन्नत हो,हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ का विकास सुनिश्चित हो. मुझे आश्चर्य है कि भारत ही एक ऐसा  देश है, जहाँ न्यायलय की भाषा न तो शासक की मातृभाषा है और न प्रजा की. आप आम जनता के किसी भी वर्ग को नागरी और उर्दू लिखित नोटिस भेजें, ज्यादातर लोग नगरी नोटिस को आसानी से समझ लेंगें जबकि उर्दू की नोटिस को समझने के लिए किसी मुंशी, मुख्तार या वकील को ढूंढना होगा.
           उन्होंने हिंदी के उच्चारण-माधुरी के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए लिखा है," जो लोग अंग्रेज अधिकारीयों को उर्दू में पत्र लिखते हैं, वे ही अपने परिजनों को पत्र लिखते हुए हिंदी का प्रयोग करते हैं,फिर भी वे हिंदी को गंवारों की भाषा कहते हैं, यह दुर्भाग्य की बात है. यह कहना गलत है कि हिंदी बोलने वाले उर्दू के शब्दों के लिए शीन, मीम, काफ के उच्चरण करते हुए बेवजह अपनी जिह्वा अप्राकृतिकरूप से टेढ़ी करें.किसी अन्य भाषा से और शब्दों को लिए बिना हिंदी समर्थ भाषा बनने   की पूर्ण क्षमता से युक्त है."
       भारतेंदु  हरिश्चंद्र देश में सामाजिक एकता की राह  साहित्य से बनाना चाहते थे. इस क्रम में उन्होंने बंगला,उर्दू साहित्य अन्य भारतीय भाषाओँ की उत्कृष्ट रचनाओं का हिंदी में अनुवाद करने पर विशेष बल दिया. वे हिंदी को भारतीय साहित्यिक चेतना का समुद्र बनाना चाहते थे.उन्होंने अपने एक मित्र संतोष सिंह को लिखित एक पत्र में कहा है,"आप 'दीप-निर्वाह' बंगला उपन्यास का मानक अनुवाद करें.यह उपन्यास केवल उपन्यास ही नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध भारतवर्ष के सम्पूर्ण सामाजिक चिंतनशैली से है."वे अनुवाद-विधा के देश की साहित्यिक एकता हेतु व्यापक प्रयोग के समर्थक थे.       



हिंदी के अनन्य भक्त एवम कर्मयोगी सेठ गोविन्द दास


हनुमान सरावगी




      राष्ट्रभाषा हिंदी का आन्दोलन  हो या राजनीति में मूल्यों की बात, समाजोत्थान की बात हो या आर्थिक संरचना  बनाने की, स्वर्गीय सेठ गोविन्द दास जी ने अंपने लम्बे जीवन में सशक्त कर्मयोगी  की तरह काम किया. उनके जीवन का मूल मन्त्र था-कर्मण्येव अधिकारास्ते मा फलेषुकदाचन....सेठ जी ने जिस मोर्चे पर अपनी  शक्ति लगायी , वे उस मोरेचे पर सफल रहे . उनमें अदम्य साहस, दृढ विश्वास और  की अद्भुत क्षमता थी.
सेठजी और  पत्नी गोदावरी देवी 
        प्रभावकारी और अनुकरणीय व्यक्तित्व के स्वामी सेठगोविन्द दासजी का जन्म १८९६ में विजयदशमी के दिन हुआ था.इन के पिता का नाम दीवान बहादुर सेठ जीवनदास और माता का नाम पार्वतीबाई था.सेठ गोविन्ददास के पास जीवन की वह सारी  समृद्धि जन्म से ही उपलब्ध  थी,जिसकी कामना करना और प्राप्त करना किसी  के लिए भी दिवास्वप्न होता है. किन्तु सेठ जी ने सारे वैभव को अनपे जीवन से परे रख कर देश, हिंदी, संस्कृति-सभ्यता और धर्म के वैभव-विस्तार के लिए अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया.
        राष्ट्रभाषा हिंदी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए १९६८ में देशव्यापी  आन्दोलन चल रहा था. इस आन्दोलन में सेठ गोविन्द दास जी ने उल्लेखनीय भूमिका निभायी.  उन्होंने कांग्रेस पार्टी के समस्त अंतर्विरोधों को झेला.इसी क्रम में सेठ गोविन्द दास जी ने १९६८ में भारत भ्रमण किया. उस समय हिंदी आन्दोलन अपने चरम पर था.
         गोविन्द दास के दादा और पिता की इच्छा थी कि वे धर्मनिष्ठ, सामाजिक, राजभक्त एवम कुशल व्यापारी बनें, लेकिन वे जिस तपोभूमि  में रहे,उसका प्रभाव उनके जीवन पर पडा.उन्होंने स्वयं कहा  है,"व्यापार कुशलता एवम राजभक्ति से दूर ही रहा , सामाजिक कहाँ तक बना, कहा  नहीं जा सकता, राजद्रोही अवश्य बन गया!" सेठ गोविन्द दास  का मन और उनकी आत्मा विद्रोही थी-रचनात्मक विद्रोही. वे देश और हिंदी के सुरताल में विलायती संगीत का मिश्रण कर, उसे वर्णशंकर नहीं बनाना चाहते थे. वे किसी भी भाषा के विरोधी नहीं थे,  परन्तु हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का हकीकत में दर्जा दिलाना चाहते थे,  जब कि  सरकार की नीति थी कि यह सिर्फ कागज पर राष्ट्रभाषा का नाम पा ले.
        
      १९२० में उन्होंने महाकौशल क्षेत्र से कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में नागपुर कांग्रेस में सक्रीय भागीदारी निभाई. इसी कांग्रेस के बाद सेठ जी राष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के आकाश में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभरे. नागपुर कांग्रेस में ही बापू की अहिंसावादी नीति को कांग्रेस ने स्वतंत्रता आन्दोलन का जन-अस्त्र स्वीकार किया. सेठजी भी शाही जीवन त्याग कर,महात्मा गांधी के अनुयायी बन  गए. सादगीपूर्ण जीवन उन्होंने अपनाया. उनका अहिंसात्मक तेवर बहुत ही प्रभावी और नि:स्वार्थ था.
      १९२३ में केन्द्रीय असेम्बली के लिए चुनाव हुआ और सेठजी मध्य प्रान्त से निर्विरोध सदस्य चुने गए थे.वे केन्द्रीय एसेम्बली में तब सबसे कम आयु वाले सदस्य थे.१९२८ में सेठजी महाकौशल  प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए.
        १९३० में महात्मा गाँधी ने नमक कानून तोड़ने का निश्चय किया. नमक सत्याग्रह  में सेठजी ने उल्लेखनीय भागीदारी निभाई. रानी दुर्गावती स्मारक पर हुई आम सभा में सेठजी ने कहा," ब्रितानी सरकार अब ज्यादा दिनों तक नहीं टिकेगी,यह सरकार मानवाधिकार की बात करती है, और नमक जैसी सामग्री के निर्माण पर पाबंदी लगाती है....."इसी सभा में ब्रितानी  पुलिस ने उनको  गिरफ्तार किया और उनके जेल जाने का सिलसिला  शुरू हो गया. 
               महात्मा गाँधी ने गोलमेज कांफ्रेंस से लौटने के बाद सत्याग्रह आन्दोलन शुरू किया. उसी वर्ष जबलपुर में  सेठ जी ने तिलक भूमि तलैया पर आम सभा शुरू की. यह ऐतिहासिक आम सभा बिना रुके चार दिनों तक जारी रही. अंग्रेजों की हर तकरीर और हर साजिश का जवाब पेश किया,सेठ जी ने अपने ओजस्वी भाषण में.ब्रितानी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में दाल दिया. आजादी  के संग्राम के समय कुल मिलाकर आठ वर्ष सेठ जी ब्रितानी जेलों में रहे और जुल्म सहे . 
       त्याग और स्पष्टवादिता के प्रतीक सेठ जी को संपत्ति का तनिक भी मोह नहीं था. उन्हें चाहिए थी देश की आजादी. १९३२ में ही उन्होंने अपनी पैत्रिक संपत्ति में अपना अधिकार लेने से इनकार कर दिया. उन्होंने ऐसा करते  हुए जो पत्र अपने पिता  को लिखा था,उसका एक-एक शब्द देश प्रेम,त्याग और बलिदानी  विचार धारा से परिपूर्ण था. उन्हें अगर भामाशाह की तरह त्यागी,महाराणा की तरह प्रतापी,गंगा की गंभीरता और पवित्रता रखने वाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. 
        प्रथम विश्व-युद्ध के समापन काल में सेठ जी ने राष्ट्रीय हिंदी मंदिर  की स्थापना की.इसी संस्था ने उन्हें धीरे-धीरे हिंदी जगत का योद्ध बना दिया.
        सेठ गोविन्द दास जी कुल मिला कर ५२ वर्षों तक सांसद रहे. इस अवधि में उन्हें मिश्र, यूनान, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, इंग्लैण्ड , कनाडा, अमेरिका, हवाइद्वीप, जापान, चीन, वर्मा आदि देशों में जाने का अवसर मिला. विदेशों में उनको भारतीय साहित्य और संस्कृति का राजदूत  माना जाता था.
        सेठ गोविन्द दास १९५५ से १९६२ तक अखिल भारतीय मारवाड़ी  सम्मलेन के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे. उन्होंने इस अवधि में सम्मेलन की गतिविधियों में प्राण फूँका. समाज में नव जागरण का सन्देश दिया और उनमें संगठन की भावना प्रतिपादित की. सम्मलेन के माध्यम से उन्होंने समाज के लिए अनेक अनुकरणीय कार्य किए और अपनी पहचान बनाए रखने का आत्मविश्वास पैदा किया.
       १९६१ में सेठ गोविन्द दास जी को उनकी अप्रतिम देश सेवा के लिए राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने 'पद्म विभूषण' से अलंकृत किया.
       साहित्य के क्षेत्र में सेठ गोविन्द दास को उनकी विशिष्ट सेवा के सम्मान के लिए जबलपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टरेट की उपादी दी, हिंदी साहित्य सम्मलेन ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति'और राजस्थान साहित्य अकादमी ने उन्हें  'मनीषी' की उपाधि से सम्मानित किया.
        १९६२ में कांग्रेस सरकार ने अनिश्चित काल के लिए अंग्रेजी को सरकारी भाषा बनाए  रखने के लिए एक विधेयक  लाया. कांग्रेस का सदस्य होते हुए भी सेठ जी ने इस विधेयक के विरोध में वोट दिया. सरकार द्वारा हिंदी की उपेक्षा को देखते हुए उन्होंने १९६८ में 'पद्म भूषण' की उपाधि भी वापस कर दी.
       सेठ जी बचपन से ही कुशाग्र और साहित्यिक प्रवृत्ति के थे. मात्र १२ वर्ष की उम्र में उन्होंने 'चम्पावती' नामक एक लघु उपन्यास लिख डाला था.  उन्होंने अनेक नाटक, एकांकी, काव्य, उपन्यास, कहानी, यात्रा विवरण, संस्मरण, जीवनी और निबंध लिखे. वृहद् उपन्यास 'इंदुमती' और नाटक 'महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य' की बहुत सराहना हुई. तीन खण्डों में प्रकाशित आत्मकथा " आत्मनिरीक्षण  " सिर्फ आत्मकथा ही नहीं बल्कि  यह भारतीय जीवन दर्शन को प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है.
       भारतीय संस्कृति, साहित्य, राजनीति और समाज के कर्मनिष्ठ योद्धा सेठ गोविन्द दास जी का व्यक्तित्व अनुकरणीय है.उनके त्याग और दृढ निश्चय के साथ सत्य के मार्ग का व्यावहारिक अनुशरण युगों तक याद रखा जाएगा. सेठ गोविन्द  दास जी जैसे कर्मयोगी कभी-कभी ही पृथ्वी पर अवतरित होते हैं.आज भारत जिस विभ्रम और संकट की स्थिति से गुजर रहा है, ऎसी स्थिति में सेठ जी के विचारों के प्रचार-प्रचार से, उनके अनुकरण से देश को दिशाबोध प्राप्त हो सकता है. 
         
        सेठजी  के जीवन में ही भारत और भारतियों पर मार्क्सवाद का प्रभाव पड़ना परमभ हो गया था.विश्व स्तर पर मार्क्सवादी शक्तियां अपनी विचार्दारा को भारत पर भी लादना चाहती थीं.दूसरी और, यूरोपीय विचारधारा का देश में अन्धानुकरण भी फैशन के रूप में तेजी से सामने आया था.हिंदी इसी दो मुहे साप के बीच अपनी मौलिकता खोने लगी थी. सेठ जी भारतीय संकृति यानी भारतीय चिंतन और जीवन धारा पर हो रहे हमले और उसके प्रभाव को अपने अंत:करण में महसूसने लगे थे. उन्होंने चेताया था," हमें न तो साम्यवादी विचारधारा और न यूरोपीय विचारधारा की आवश्यकता है. हमारी विचारधारा तो हमारी माटी में उपजेगी.हमारे चिंतन से सामने आयेगी. हम जब अपने ह्रदय से गुलामी के दिनों में बनी तस्वीरों से अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए झूठे इतिहासों से मुक्त होंगे तभी हमारा भारतवर्ष समुन्नत होगा. अंग्रेजों का इतिहास भ्रम पैदा करने वाला था. उन्ग्रेजों ने यह जताने की झूठी कोशिस की कि भारतीय आर्य भारत के रहने वाले नहीं थे. इनका सम्बन्ध यूरोपीय या अन्य संस्कृतियों से सिर्फ इतना है कि भारत ने उन्हें प्रारंभिक ज्ञान दिया, भाषा दी. अक्षर दी और सामाजिक आदमी का जीवन दिया. कहने का तात्पर्य यह है कि सेठ जी सम्पूर्ण भारतीय थे और उनकी आत्मा में मा भारती का वास था.

क्रांति नायक बिरसा मुंडा

हनुमान सरावगी


     पलाश और महुआ से घिरी झारखण्ड  की उपत्यका हजारों वर्षों से अपने गर्भ में अनगिनत रत्नों को धारण किए है,और समय-समय पर ऐसे रत्न  मानव इस पावन धरती शरीर लेकर आए,जिन्होंने समाज को दिशा दी और  आशाएं जगाईं. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की रणभेरी  बजाकर शहीदों ने ब्रिटिश-शासन को इस बात  का अहसास करा दिया कि उनके राज्य में भी सूर्यास्त हो सकता है. इसके बाद कुछ वर्षों तक के लिए हमारी विरासत को अंग्रेजों ने खामोश सा कर दिया,खासकर छोटानागपुर के पठार पर एक सन्नाटे ने जन्म लिया. इस सन्नाटे को तोड़ने का श्रेय कान्तिकारी बिरसा मुंडा  को जाता है.
        बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवम्बर १८५७ में खूंटी के पास चलकद  गाँव में हुआ. इन्होने अंग्रेजी  साम्राज्यवाद की चूलें हिला दीं, जिससे अंग्रेजों ने भयभीत हो कर इनके आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया और इन्हें जेल में डालने का काम शुरू किया. यहाँ तक कि बिरसा को अहसास था कि बिना जीवन की कुर्बानी दिए, उनकी क्रांति सदियों तक समाज को जीवंत नहीं रख पाएगी. जेल में जब उनके जीवन का अंतिम क्षण उपस्थित था,उन्होंने अपने मित्र भरमी मुंडा से कहा," भरमी, मैं फिर आऊंगा. तुम लोग चिंता मत करो. मैंने तुम में  आत्मविश्वास भर दिया है. तुमको स्वावलंबन की राह बतायी है और तुम्हारे हाथों में हथियार दे दिए हैं...."
          लोक गीतों और जनश्रुतियों में वर्णित है कि जब भगवान् बिरसा मुंडा का अवतरण हुआ था तब सम्पूर्ण चलकद गाँव आलौकिक  प्रकाश से जगमगा उठा था.  वे बचपन से ही ईश्वरीय तेज से दीप्त थे.साथ ही,तीर संचालन में भी भगवान् बहुत निपुण थे.
        भगवान् बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के अहंकार और रंगभेद की नीति को चाईबासा के मिशन स्कूल में महसूसा था. किम्वदन्ती है कि एक बार बालक बिरसा को रास्ते में रोक कर एक अंग्रेज ने पूछा," ओ काला लड़का, यह रास्ता किडर को जाटा  हाय?"बिरसा ने उसे छूटते ही प्रत्युत्तर दिया," मुझसे इस छोटे से रास्ते के बारे में मत पूछो, मैं तुमको वयस्क होने पर सात समन्दर पार जाने का रास्ता बतला दूँगा." 
        बिरसा ने अंग्रेजी शासन और उसके शोषणकारी  कार्यकलापों को देखा और झेला था, साथ ही, उसे इस बात की भी चिंता थी कि उसके समाज के लोग अनेकानेक रूढ़ियों और कुरीतियों से भी घिरे हुए हैं. वे नई हवा में अपने को जीने योग्य बनाने के लिए शिक्षित नहीं हो रहे हैं और न ही नशा सेवन, रूढ़ियों, कुरीतियों आदि को तज रहे हैं. 
        भगवान् बिरसा मुंडा ने मात्र १५ वर्ष की आयु में अपना लक्ष्य निर्धारण कर लिया था.क्रांति की ज्वाला अपने ह्रदय में बैठाए  इस युवा  ने आनंद पाण्डेय से सनातन धर्म की जानकारी प्राप्त की. जनेऊ धारण किया.तुलसी की पूजा प्रारंभ की.अपने माथे पर चन्दन तिलक लगाया. लेकिन, इस ज्ञान के बाद बिरसा ने अपने समाज के अनुरूप अपनी धार्मिक मान्यताएं बनाईं, जिनका प्रथम उद्देश्य था समाज के प्रत्येक व्यक्ति में आत्मसम्मान,आत्मगौरव और आत्मविश्वास भरना.इनकी भूमिका ठीक उसी प्रकार  है जिस प्रकार महामना राजा राममोहनराय ने हिन्दू समाज में फैली रूढ़िवादिता को दूर किया था. 
         १८९४ से १८९५ में बिरसा मुंडा को लोगों ने धरती का पिता  (धरती अबा) स्वीकार कर लिया और लोग उसे श्रद्धा से भगवान् बिरसा मुंडा कह कर पुकारने लगे. सिंगबोंगा(सूर्य देवता) में अटूट विश्वास रखनेवाले भगवान् बिरसा ने धर्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में ब्यापक क्रांति एक साथ प्रारंभ की.उनकी राजनीतिक क्रांति (उलगुलान) का प्रभाव अंग्रेजी शासन पर गहरा पड़ा तो उनकी सामाजिक-धार्मिक-शैक्षणिक क्रांति का प्रभाव तो अनेक आनेवाली सदियों तक महसूस किया जाता  रहेगा. लेकिन, अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा की छवि को धूमिल करने के लिए अनेक झूठी कथाएँ गढ़ीं. उन्हें पागल तक कह  डाला. वे उन्हें भगवान् का अवतार मानने को तैयार नहीं थे. 
        १८९५ में भगवान् बिरसा मुंडा ने  ब्रितानिया  शासन को मानने से इनकार कर दिया और राजनीतिक क्रांति और संघर्ष का सिलसिला प्रारंभ किया. भूमि कर देने से उन्होंने मनाही कर दी.सबको  अपने तीर तलवार अस्त्र-शास्त्र धारण कर अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए तैयार किया.  झारखण्ड  क्षेत्र के सभी समुदायों का सहयोग उनको प्राप्त था,मुट्ठीभर अंग्रेजों और उनके समर्थकों को छोड़ कर. 
        १४ अगस्त, १८९५ को भगवान् बिरसा मुंडा ने अपनी गिरफ्तारी के प्रयासों को देखते हुए अपने समर्थकों से कहा," भय मत करो.मेरा शासन आरम्भ हो गया है. उनकी बंदूकें  काठ में बदल जाएंगी. गोलियां  पानी के बुलबुले बन जाएंगी. अंग्रेज मेरे राज्य को चुनौती  दे रहे हैं, उन्हें निर्भय हो कर सबक सिखाओ." 
        अंग्रेजों ने छल-नीति के द्वारा रात में सोए हुए बिरसा को गिरफ्तार किया. उनके साथ उनके अनेक सहयोगी गिरफ्तार किए गए.अंग्रेजों ने भगवान् बिरसा मुंडा को साधारण व्यक्ति सिद्ध करने के लिए खूंटी में खुला कोर्ट लगाया.  लेकिन  'धरती अबा' के दर्शन के लिए बड़ी भीड़ आ गयी और उनके पक्ष में नारे लगाने लगी, तब अंग्रेज खूंटी में कोर्ट नहीं लगा पाए.
           २२जनवरी, १८९५  को भगवान् बिरसा मुंडा को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी. उनको हजारीबाग के जेल में रखा गया. ३० नवंबर, १८९७ को भगवान् भगवान् बिरसा मुंडा जेल से वापस आए. 
        जेल से वापसी के बाद भगवान् बिरसा मुंडा ने व्यवस्थित रूप से उलगुलान (क्रांति) शुरू की. उन्होंने सोमा मुंडा को धार्मिक-सामाजिक क्रांति का प्रमुख और दोंका मुंडा को राजनीतिक क्रांति का प्रमुख बनाया.बिरसा ने साफ़ तौर पर घोषणा की कि हम अपनी धरती पर अंग्रेजों को शोषण-दमन  का राज चलाने नहीं  देंगे. यहाँ सिर्फ हमारे क्षेत्र   के लोगों का राज चलेगा, जिसमें बड़े-छोटे का भेदभाव नहीं होगा.कानून शोषण के लिए नहीं, बल्कि आमलोगों के विकास के लिए होगा. 
            इस घोषणा के बाद सरकारी कार्यालयों, पुलिस थानों और अंग्रेजी शासन के समर्थकों पर बिरसा पंथियों ने अपना सशस्त्र हमला तेज कर दिया.
            अंग्रेजी प्रशासन ने घबरा कर कुछ लोगों को ५०० रुपयों का ईनाम देने का वादा कर भगवान् बिरसा मुंडा को फरवरी माह १९०० में गिरफ्तार कर लिया.उनके साथ उनके अनेक सार्थक गिरफ्तार किए गए. बहुत ही विवादास्पद स्थिति में रांची जेल में ९ जून, १९०० को भगवान् बिरसा मुंडा ने इस दुनिया से महाप्रयाण किया.